Goat Farming : कम लागत में ज्यादा मुनाफा

Goat Farming : कम लागत में ज्यादा मुनाफा वाला व्यवसाय है बकरीपालन । जिसे बहुत कम लागत और छोटी जगह में भी सरलता से किया जा सकता है। बकरी को छोटे आकर के कारण आसानी से पाला जा सकता है । बकरीपालन को मुख्यता: माँस और दूध के लिए भूमिहीन , लघु और सीमान्त किसानों द्वारा पाला जाता है । इसके अलावा इसकी खाल, बाल, रेशों का भी व्यावसायिक महत्व है। बकरी पालन से प्राप्त खाद भी उत्तम होती है जिसे खेती में उपयोग किया जाता है । आजकल युवाओं का भी इस व्यवसाय में रुझान बढ़ता जा रहा है और व्यावसायिक रूप से इसका पालन हो रहा है।

बकरी पालन को सही प्रशिक्षण द्वारा ज्यादा फायदेमन्द व्यवसाय बनाया जा सकता है। बकरीपालन को कैसे ज्यादा लाभदायक बनाये , आइये जानते है Discover Farming के इस लेख में –

बकरियों की नस्ल

बकरी की प्रजाति का चुनाव स्थानीय वातावरण को ध्यान में रखकर करना चाहिए। दुनिया में बकरी की कम से कम 103 नस्लें हैं। इनमें से 21 नस्लें भारत में पायी जाती हैं। इनमें प्रमुख हैं – बरबरी, जमुनापारी, जखराना, बीटल, ब्लैक बंगाल, सिरोही, कच्छी, मारवारी, गद्दी, ओस्मानाबादी और सुरती। इन नस्लों की बकरियों की बहुतायत देश के अलग-अलग इलाकों में मिलती है। बकरी की नस्लों का वर्गीकरण मुख्य रूप से चार प्रकार से किया जाता है।

दुधारू नस्लें:-

वह नस्लें जिसकी बकरियां अन्य नस्लों की अपेक्षा में अधिक दूध देती हैं।
जैसे- बीटल, मालाबारी, सूरती, जखराना।
विदेशी नस्लें: सानेन, ब्रिटिश एल्पाइन, न्यूवियन, टोगेन वर्ग, आदि।

मांस की नस्लें:-

वह नस्लें जिसकी बकरियाँ दूध बहुत कम देती हैं और नरों को बधिया करके उससे अधिक मात्रा में मांस प्राप्त किया जाता है।
जैसे- आसाम हिल बरबरी, ब्लैक बंगाल, सोजत आदि ।
विदेशी नस्लें: अफ्रीकन बोइर, मातऊ, फिजियन, आदि।

द्विउद्देशीय नस्लें:-

वह नस्लें की बकारियां अच्छा दुग्ध उत्पादन दें और जिसके बकरे भी माँस उत्पादन अधिक देते है ।
जैसे- जमनापारी, ओस्मानाबादी, मरवाड़ी, सिरोही, जलवादी, आदि।

ऊन वाली नस्लें:-

वह नस्लें जिससे अच्छा ऊन उत्पादन लिया जा सके।
जैसे- चेंगू , चंगथांगी, बाखरवल, कश्मीरी, आदि।
विदेशी नस्ल: अंगोरा, आदि।

बकरियों का आवास

बकरी के आवास की लंबाई पूर्व-पश्चिम दिशा में होनी चाहिए। लंबाई वाली दीवार को एक से डेढ़ मीटर ऊंची बनवाने के पश्चात दोनों तरफ जाली लगानी चाहिए। बाड़े का फर्श कच्चा तथा रेतीला होना चाहिए। उसमें समय-समय पर बिना बुझे चूने का छिड़काव करते रहना चाहिए। वर्ष में एक से दो बार बाड़े की मिट्‌टी बदल देनी चाहिए। 80 से 100 बकरियों के लिए बाड़ा 20 × 6 वर्ग मीटर ढका हुआ तथा 12 × 20 वर्ग मीटर खुला जालीदार क्षेत्र होना चाहिए। बकरा, बकरी तथा मेमनों को (ब्याने के एक सप्ताह बाद) अलग-अलग बाड़ों में रखना चाहिए। मेमनों को बकरी के पास दूध पिलाने के समय ही लाना चाहिए। अधिक सर्दी, गर्मी एवं बरसात में बकरियों एवं मेमनों के बचाव का व्यापक रूप से प्रबंध करना चाहिए।

बकरियों का भोजन

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बकरी को प्रतिदिन उसके भार का 3-5 प्रतिशत शुष्क आहार Dry Matter खिलाना चाहिए। एक वयस्क बकरी को 1-3 कि.ग्रा. हरा चारा, 500 ग्राम से 1 कि.ग्रा. भूसा (यदि दलहनी हो तो और बेहतर है) तथा 150 ग्राम से 400 ग्राम तक दाना प्रतिदिन खिलाना चाहिए। दाना हमेशा दला हुआ व सूखा ही दिया जाना चाहिए और उसमें पानी नहीं मिलाना चाहिए। साबुत अनाज नहीं खिलाना चाहिए। दाने में 60-65 प्रतिशत अनाज (दला हुआ) 10-15 प्रतिशत चोकर, 15-20 प्रतिशत खली (सरसों के अलावा ), 2 प्रतिशत मिनरल मिक्स्चर तथा एक प्रतिशत नमक का मिश्रण होना चाहिए। बकरियों को प्रजनन काल के एक माह पूर्व से ही पचास से सौ ग्राम तक दाना अवश्य देना चाहिए, जिससे स्वस्थ बकरी से अधिक मेमने पैदा हो सकें। इसी प्रकार बकरों को भी प्रजनन काल के दौरान प्रतिदिन सौ ग्राम दाना अतिरिक्त मात्रा में देना चाहिए। बकरियों को साफ पानी पिलाना चाहिए।

बकरियों में टीकाकरण

बकरी पालकों के पास बकरियों की स्वास्थ्य सुरक्षा संबंधी जानकारी होना जरूरी है. ताकि समय रहते बकरी पालक अपने पशुओं के इन समस्याओं को दूर कर उन्हें सुरक्षित रख सकें।

बकरियों में होने वाले प्रमुख रोग और उपचार

बकरियों में रोगो की समस्या आम होती है. जिस वजह से बकरी पालकों को नुकसान उठाना पड़ता है। वहीँ कई रोग इतने घातक होते हैं कि अगर समय पर इलाज ना किया जाए, तो बकरी की मौत भी हो जाती है। इसके बचाव के लिए बकरियों की उचित देखभाल के साथ ही समय पर टीके लगवाने चाहिए, ताकि बकरियों को संभावित रोग होने से बचाया जा सके।

पी.पी.आर. रोग

बकरियों में पाया जाने वाला यह एक विषाणु जनित रोग है। यह रोग किसी भी आयु की बकरियों में हो सकता है। बकरियों में इस रोग का संक्रमण दूषित हवा, पानी और भोजन के वजह से होता है।

इस रोग से पीड़ित बकरियों में बुखार, नाक व आंख से पानी का बहना, पतले दस्त, मुंह में छाले का पडऩा प्रमुख लक्षण है. यह रोग तेज़ी से एक बकरी से दूसरी बकरी में फैलता है। ऐसे में अगर किसी बकरी में यह रोग पाया  जाता है, तो दूसरी बकरियों को दूर रखें. इस रोग से बचाव के लिए बकरियों को समय पर टीका लगवाना चाहिए।

चेचक रोग

यह एक विषाणु जनित रोग है, जो रोगी बकरी के सम्पर्क में आने से फैलता है। इस रोग में बकरी के शरीर पर दाने निकल आते हैं।  बीमार बकरियों को बुखार आता है और कान, नाक, थनों व शरीर के अन्य भागों पर गोल-गोल लाल रंग के चकते हो जाते हैं, जो फफोले का रूप लेकर अन्त में फूट कर घाव बन जाते हैं। बकरी चारा खाना कम कर देती हैं तथा दूध उत्पादन कम हो जाता है।

रोग के प्रकोप से बचने के लिए प्रतिवर्ष वर्षा से पहले रोग-प्रतिरोधक टीके लगवाने चाहिए। जिससें दूसरे प्रकार के कीटाणुओं के प्रकोप को रोका जा सके।

खुरपका-मुंहपका रोग

यह बकरियों का एक संक्रामक रोग है। यह रोग वर्षा ऋतु के आने के बाद आरंभ होता है। इस रोग में बकरियों के मुंह व खुर में छाले पड़ जाते हैं तथा मुंह से लार टपकती रहती है। इससे बकरी चारा नहीं खा पाती है। पैरों में जख्म हो जाने से बकरियां लंगड़ा कर चलने लगती हैं। चारा ना खा पाने से बकरियां कमजोर हो जाती हैं, जिससे इनमें मृत्युदर बढ़ जाती है तथा इनका शारीरिक भार व उत्पादन भी कम हो जाता है। रोग के बचाव के लिए पशु को टीका लगवाना चाहिए।

आफरा रोग

यह बकरियों में मुख्य रूप से पाया जाने वाला रोग है इसमें गैस के बनने व एकत्रित होने से पेट फूल जाता है. यह रोग अधिकतर वर्षा व उसके बाद में जरूरत से अधिक हरा चारा, सड़ा हुआ चारा खा लेने से होता है। इससे अधिक गैस बनती है. कई बार बहुत सी बीमारियों की वजह से पशु बहुत समय तक एक ही करवट लेटा रहता है तब उसकी पाचन क्रिया सही ढंग से नहीं हो पाती है, जिससे पेट में गैस एकत्रित होकर इस रोग का कारण बनती है।

आफरा से बचने के लिए पशुओं को सड़ा-गला चारा व अधिक मात्रा में दाना नहीं  खिलाना चाहिए।

बकरियों में लगने वाले प्रमुख टीके ( वेक्सीन )

बकरियों को रोग सुरक्षा के लिए जो टीके लगाए जाते हैं उनके नाम इस प्रकार से हैं-

  • एफएमडी 
  • पी. पी. आर 
  • एंटेरोटोक्सिमिया 
  • चेचक 
  • टिटनेस 
  • ब्लैक क्वार्टर  
  • चेचक 
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